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एक प्रतिशत बनाम निन्यान्वे प्रतिशत का देश

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एक प्रतिशत बनाम निन्यान्वे प्रतिशत का देश
आज एक और आत्महत्या ! मेरे शहर में कमोबेश रोज औसत एक आत्महत्या हो रही है कभीकभी एक दिन में यह संख्या पांच से दस तक भी पहुंच जाती है कभी कभी पूरे परिवार के एक साथ आत्महत्या करने के भी समाचार सामने आते है . जो हाल मेरे शहर का है वही हाल लगभग समूचे देश का है. यह क्या हो गया है मेरे देश को यह बेहद दुखद सिलसिला पूरे वेग से क्यों चल निकला है ,और पूरा देश मौन क्यो है ? एक समाचार की तरह रोज पेज बदल जाता है और बात आई गई हो जाती है अब तो किसी के कानो में जूं तक नही रेंगती है। मीडिया की नजर मे भी बेह्द सामान्य खबर हो गई है कई अखबार तो अब इसे जगह देने से भी कतराने लगे है ।
इन आत्महत्याओं के कारण अलग अलग दिखाई दे सकते है लेकिन सारे कारणो की मूल जड़ में अत्यंत गहरी आर्थिक विषमता है जिसमें शासन प्रशासन ,राजनीति की न केवल अक्षमता बल्कि एक लय मे आपराधिक बदनीयती स्पष्टरुप से मह्सूस होती है जिनके सहायक कारणो से ऐसी कोई विवशता रचित होती है जिसे आत्महत्या करने वाला न स्वयं दूर कर सकता है न उसे किसी भी तरह से इस मामले मे किसी से भी सहायता मिलने की कोई उम्मीद शेष बचती है । कोई भी व्यक्ति अन्तिम हद पर जाकर ही आत्महत्या करने के लिए विवश होता है बल्कि हम कहेगे कि चारो और से घेर कर उसे मजबूर किया जाता है, एक तरह से उसका शिकार किया जाता है । कोई व्यक्ति आत्महत्या करने के लिए विवश हो यह समूचे देश के लिए ही बहुत ही शर्म की बात है सत्ता में बैठकर नीति और व्यवस्था संभाल रहे लोग तो इसके लिए सीधे जिम्मेदार और अपराधी भी है उन सभी को तो इसके लिए सजा दी ही जानी चाहिए प्रजातंत्र के दूसरे तीन स्तंभ प्रेस ,न्यायपालिका और व्यवस्थापिका भी इसके लिए बराबर से ही जिम्मेदार है ,क्योकि सच पूछा जाये तो ये आत्महत्यायें नही हत्याये है ,जो इस समूची दूषित व्यवस्था की सक्रियता और निष्क्रियता ने भी मिलकर की है, कर रही है । सक्रियता हमारी जानबुझकर अपनाई गई दोषपूर्ण आर्थिक नीतियो की है जिसने झूठे और खोखले विकास के नाम पर आर्थिक विषमता की खाई को इतना गहरा और विषाक्त बन जाने दिया है कि सामान्य मध्यम वर्ग का व्यक्ति उसे उलांघने की कभी कल्पना भी नही कर सकता है.वित्त राज्यमंत्री नमोनारायण मीणा द्वारा राज्यसभा में दी जानकारी के अनुसार ग्लोबल वेल्थ इंटलीजेंसफर्म वेल्थएक्स द्वारा कराये गये सर्वे में भारत में सर्वाधिक अमीर केवल ८२०० लोगो के पास ९४५ अरब डालर या ४७,२५० अरब रूपये अर्थात देश की दौलत एवं अर्थव्यवस्था का ७०% हिस्सा है. अगर इन आंकड़ो में दूसरी , तीसरी और चोथी ,पायदान के अमीरों को भी शामिल करते है तो कुल देश की जनसंख्या के कुल १% ,इन अमीरों के पास देश की दौलत का लगभग ९०% से ९९% हिस्सा है और शेष ९९% देश की जनसंख्या में मात्र १% से १०% दौलत बंटी हुई है.
कहाँ है ,कैसा है,और,कैसे है सामाजिक न्याय,मानव अधिकार ,प्रजा का तन्त्र ? क्या यही है . क्या यह बेहद अकल्पनीय विरोधाभास ,घनघोर असमानता सरकार के लिए शर्मनाक नहीं है ? यह अंतर इतना गहरा ,बडा और स्पष्ट है की अंधे को भी साफ साफ दिखाई दे जाये परन्तु हमारे नेता , हमारी सरकार ने कभी भी किसी कोण से इसे देखने का कोई प्रयास ही नहीं किया है न कभी यह महसूस कराया है कि वह इसके लिए वाकई शर्मिंदा है ? यह बेशर्म निष्क्रियता और सक्रियता हमारे शासको एवं व्यवस्था की है जो खुलकर स्पष्ट रूप से अमीरों के द्वारा ,अमीरों के हाथो में ,अमीरों के लिए खेल रही है ।
आप किसी भी विचारधारा ,वाद को माने आप १% अमीरों के इस दायरे से बाहर है तो आप इस बात से सहमत होंगे कि इसके लिए अन्याय ,शोषण शब्द बेहद छोटे पड़ेंगे यह तो खुलेआम लूट हो रही लूट है .अमेरिका के बारे में जाने-माने अर्थशास्त्री जोसेफ स्टिग्लिट्ज का मत है की अमेरिका में सबसे अधिक अमीर यानी एक फीसदी अभिजात्य लोग देश की कुल संपदा का 40 फीसदी नियंत्रित करते हैं और उन्हें यह बेहद आपत्ति जनक लगता है तो भारत वालो को यह कितना आपत्तिजनक लगना चाहिए क्योकि भारत में तो यह अन्तर सबसे अधिक है ,भारत में अमीर यानी एक फीसदी अभिजात्य लोग देश की कुल संपदा का कम से कम 90 फीसदी नियंत्रित करते हैं इसके बावजूद अमेरिका जैसे देश में कॉरपोरेट जगत की लूट और समाज में व्याप्त गैर बराबरी के खिलाफ खड़ी हुई पूंजीवाद विरोधी मुहिम ऑक्यूपाइ वाल स्ट्रीट आंदोलन को समूचे अमेरिका के साथ साथ अन्य कई देशो में भारी समर्थन मिला ,परन्तु भारत में तो स्थिति दोगुनी से भी अधिक ख़राब है और हमारे यहाँ भी इसी प्रकार के आन्दोलन की आवश्यकता बहुत है भारतवासी सहन करते है और जब असहनीय हो जाये तो खुद की ही जान ले लेते है परन्तु विरोध नही करते | दुष्यन्त कुमार की पन्क्तियां याद आती है – न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढ़ंक लेंगे /ये लोग कितने मुनासिब है इस सफ़र के लिये | आज परिस्थिति कितनी खराब है इसका अनुमान आप इस बात से लगा सकते है कि पचास हजार रूपये प्रतिमाह तक कमाने वाला व्यक्ति भी एक घर तक नहीं खरीद सकता है क्योकि लालच और लूट के षड़्यन्त्रो के तहत उसकी कीमत कर दी गई है पचास लाख से एक करोड़ रूपये और इतनी बढ़ी रकम का तो वह कभी ब्याज भी नही भर सकता .दूसरी और इसी तरह से शिक्षा का खर्च भी लाखो में है ,आज एम.बी.बी.एस के लिए पच्चीस लाख रूपये नगद ड़ोनेशन चाहिए ,अगर परिवार मे कोई लंबी बिमारी आ गई किसी सदस्य पर तो ,उसका खर्च भी लाखों मे है लीवर ट्रान्सप्लान्ट आपरेशन का खर्च चालीस लाख रूपये नगद चाहिए। कहां कहां वह अपना हाथ पुरा सकता हैं ? यह तो अच्छी नौकरी वालो की बात हो गई अब उनका क्या हाल होता होगा जिनके पास दो से पांच हजार रूपये की निजी व अस्थायी नौकरी है और वह कभी भी छूट सकती है,छूट जाती है वह क्या करेगे कैसे करेगें , कैसे करते है ? और उनका क्या हाल होगा जिनके पास नौकरी ही नहीं है उनके पास क्या उपाय है ? सरकारी नौकरी कर, घी पीकर काम नही करने की तनख्वाह लेने वाले ,तनख्वाह बढ़ाने के लिए आंन्दोलन प्रदर्शन करने वाले ,अलग अलग पे कमिशनो का लाभ लेने वाले , सरकार और व्यवस्था के कर्णधार नियन्ता अपने वेतन और भत्ते खुद ही बढ़ा लेने वाले यह कभी क्यों नही सोचते कि जिनके पास नौकरी ही नही है उनका क्या हाल होगा ,वे कैसे अपना गुजारा कर रहे होंगे , वे भी इन्सान है | सरकार पे कमीशन पर पे कमीशन बैठाते हुए तन्ख्वाहो में मंहगाई के नाम पर वृद्धि करते हुए कभी उनका ख्याल क्यो नही करती ,क्या उनके लिए मंहगाई नही है ,क्या यह उनके साथ घोर अन्याय नही है ? उनपर तो दोहरी मार लगती है एक मार तो नोकरी नहीं ,दुसरे सरकारी सेवको अधिकारियो को दी जाने वाली भारी वृद्धियो के लिए नये टेक्स लगाकर और महंगाई बढ़ाई जाती है उसकी भी मार उसे झेलना पडती है अगर आगे भी इसका ख्याल नहीं किया गया तो विषमता का यह जो दिनप्रतिदिन बढ़ता फैलता आकार प्रकार हमारे सामने आज है यह और अधिक खोफनाक स्वरूप में सामने आता ही रहेगा जिसका आम आदमी तो सपने में भी मुकाबला नहीं कर पायेगा .जिससे आस और हिम्मत टूटने की इन घटनाओ मे कमी आने के स्थान पर और बढ़ोतरी ही होगी यह तय है .नौकरियां और संसाधन कम है तो उनका वितरण तर्कसंगत ढ़ंग से ही होना चाहिए ? और यह कार्य सिर्फ नौकरियो में ही नही अन्य सभी क्षेत्रो में भी होना चाहिए ।
आज प्रजातांत्रिक सरकारो की हकीकत हम यह देखते है कि धनी और बेहद धनी होते ही जा रहे है अरबपतियो की संख्या में इजाफा होता ही जा रहा है प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार कहते है कि संभवतः हम ऐसे देश है ,जहां अरबपतियो की संख्या सबसे ज्यादा है । यह अरबपतियो के पास इतनी विपुल धन संपदा कहां से आ गई ? प्रजातंत्र में इतनी गहरी विषाक्त आर्थिक विषमता उपजी कैसे !बिल्कल उसी तरह से , जिस तरह से रूसी अरबपतियों ने अपनी अपार संपदा का निर्माण किया । सत्ता और जोड़ -तोड़ ,दलाली कमीशनों के कामो में लगे हुए लोगो से नजदीकियां बनाकर , उन चीजो को हथियाकर जो दरसल हमारी आपकी और उनकी है जो इसके अभाव मे विवश होकर आत्महत्याये कर रहे है । इनके अपार धन का अधिकांश हिस्सा भ्रष्टाचार, कमीशन ,संदिग्ध जमीनो, रियल इस्टेट के धंधें ,गैरकानूनी खनन ,सरकारी ठेको ,ऐसे विशेष आर्थिक योजनाओ से है जो कभी अस्तीत्व मे आ ही नही सकी ऐसे कार्यो,से आ रहा है । भ्रष्ट ,नेता ,बाबू ,बिल्डर , सत्ता के दलालो का कुल अनुमानित 65,223 अरब रूपया स्वीस बैंको में जमा है शायद इसीलिए कहा जाता है कि भारत गरीबो का देश है ,मगर यहां दुनिया के बडे अमीर बसते है । जिस प्रकार से दुनिया के चुनिन्दा बड़े अमीरों में शुमार अमेरिकी उद्यमी वारेन बफेट अपनी कमाई का ९९ फीसद हिस्सा समाजसेवा से जुड़े कार्यों को समर्पित करने की इच्छा रखते हैं तो हमारे देश के अमीरों को भी कुछ ऐसा ही क्यों नहीं करना चाहिए ? हमारे शासको के लिए एक प्रतिशत बनाम निनन्न्यांनवे प्रतिशत का यह सच ड़ूब मरने लायक है यह बेहद शर्मनाक परिस्थिति है क्या हमारे प्रजातंत्र के चारो स्तंभ भी इस शर्मीदगी में अपनी सहभागिता महसूस करते हुए आंख खोलकर इसका परीक्षण निरीक्षण करने और इस शर्मनाक परिस्थिति को बदलने का ईमानदारी भरा का कोई सार्थक प्रयास करेंगे / अंतत:ऐसे सार्थक प्रयास का समर्थन करेंगे / अंतत:ऐसे सार्थक प्रयास का विरोध तो नहीं करेंगे ? क्या हम ऐसी आशा कर सकते है ?

– गिरीश नागड़ा

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